Lekhika Ranchi

Add To collaction

प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


44.

डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैरियत हुई कि प्रेमशंकर मौजूद थे, नहीं तो इन बदमाशों के हाथ मेरी न जाने क्या दुर्गति होती! जब वह अपने घर पर सकुशल पहुँच गये और बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे तो इस समस्या पर आलोचना करने लगे। अब तक वह न्याय और सत्य के निर्भीक समर्थक समझे जाते थे। पुलिस के विरुद्ध सदैव उनकी तलवार निकली ही रहती थी। यही उनकी सफलता का तत्त्व था। वह बहुत अध्ययनशील, तत्त्वान्वेषी, तार्किक वकील न थे, लेकिन उनकी निर्भीकता इन सारी त्रुटियों पर पर्दा डाल दिया करती थी। इस पर लखनपुर वाले मुकदमे में पहली बार उनकी स्वार्थपरता की कलई खुली। पहले वह प्रायः पुलिस से हार कर भी जीत में रहते थे, जनता का विश्वास उनके ऊपर जमा रहता था, बल्कि और बढ़ जाता था। आज पहली बार उनकी सच्ची हार हुई। जनता का विश्वास उन पर से उठ गया। लोकमत ने उनका तिरस्कार कर दिया। उनके कानों में उपद्रवियों के ये शब्द गूँज रहे थे, ‘इन लोगों का खून इन्हीं की गर्दन पर है।’ इर्फान अली उन मनुष्यों में न थे। जिनकी आत्मा ऋद्धि-लालसा के नीचे दबकर निर्जीव हो जाती है। वह सदैव अपने ईष्ट मित्रों से कठिनाइयों का रोना करते थे कि इस पेशे को छोड़ दें, लेकिन जुआरियों की प्रतिज्ञा की भाँति उनका निश्चय भी दृढ़ न होता था, बल्कि दिनोंदिन वह लोभ में और भी डूबते जाते थे। उनकी दशा उस पथिक की सी थी जो संध्या होने से पहले ठिकाने पर पहुँचने के लिए कदम तेजी से बढ़ाता है। इर्फान अली वकालत छोड़ने के पहले इतना धन कमा लेना चाहते थे कि जीवन सुख से व्यतीत हो। अतएव वह लोभ मार्ग में और भी तीव्रगति से चल रहे थे।

लेकिन आज की घटना ने उन्हें मर्माहत कर दिया। अब तक दशा उन रईसों की सी थी जो वहम की दवा किया करते हैं। कभी कोई स्वादिष्ट अवलेह बनवा लिया, कभी कोई सुगन्धित अर्क खिंचवा लिया या रुचि के अनुसार उसका सेवन करते रहे। किन्तु आज उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं एक जीर्ण रोग से ग्रसित हूँ, अब अर्क और अवहेल से काम न चलेगा। इस रोग का निवारण तेज नश्तरों और तीक्ष्ण औषधियों से होगा। मैं सत्य का सेवक बनता था। वास्तव में अपनी इच्छाओं का दास हूँ। प्रेमशंकर ने मुझे नाहक बचा लिया। जरा दो-चार चोटें पड़ जातीं तो मेरी आँखें और खुल जातीं।

मुआजल्लाह! मैं कितना स्वार्थी हूँ? अपने स्वार्थ के सामने दूसरों की जान की परवाह नहीं करता। मैंने इस मुआमले में आदि से अन्त तक कपट-व्यवहार से काम लिया। कभी मिसलों को गौर से नहीं पढ़ा, कभी जिरह के प्रश्नों पर विचार नहीं किया, यहाँ तक कि गवाहों के बयान भी आद्योपान्त न सुने, कभी दूसरे मुकदमे में चला जाता था, कभी मित्रों से बातें करने लगता था। मैंने थोड़ा-सा अध्ययन किया होता तो प्रियनाथ को चुटकियों पर उड़ा देता। मुखबिर को दो-चार जिरहों में उखाड़ सकता था। थानेदार का बयान कुछ ऐसा प्रामाणिक न था, लेकिन मैंने तो अपने कर्त्तव्य पर कभी विचार ही नहीं किया। अदालत में इस तरह जा बैठता था जैसे कोई मित्रों की सभा में जा बैठता हो। मैं इस पेशे को बुरा कहता हूँ, यह मेरी मक्कारी है। हमारी अनीति है जिसने इस पेशे को बदनाम कर रखा है। उचित तो यह है कि हमारी दृष्टि सत्य पर हो, पर इसके बदले हमारी निगाह सदैव रुपये पर रहती है। खुदा ने चाहा तो आइन्दा से अब वही करूँगा जो मुझे करना चाहिए। हाँ, अब से ऐसा ही होगा। अब मैं भी प्रेमशंकर के जीवन को अपना आदर्श बताऊँगा, सन्तोष और सेवा के सन्मार्ग पर चलूँगा।

   1
0 Comments